पारसी समुदाय टावर आफ साइलेंस : ‘टावर ऑफ साइलेंस’ एक ऐसी जगह, जहाँ पारसी लोग अपने प्रियजनों के मरने के बाद उनके शवों को प्रकृति की गोद में छोड़ देते हैं। क्या हमेशा के लिए खत्म हो जाएंगे पारसी समुदाय के लोगों का ‘टावर आफ साइलेंस’?ये प्रथा प्राचीन समय से पारसी समुदाय में चली आ रही है, इसे ‘दखमा’ कहते हैं।
क्या हमेशा के लिए खत्म हो जाएंगे पारसी समुदाय के लोगों का 'टावर आफ साइलेंस'?
पारसी समुदाय के लोगों का अंतिम संस्कार एक अनोखी और अनूठी प्रथा है जो अन्य धर्मों से बहुत अलग है। पारसी लोग मानते हैं कि मानव शरीर प्रकृति का दिया एक उपहार है इसलिए मौत के बाद उसे प्रकृति को लौटाना होता है। दुनिया भर में पारसी इसी तरह शवों का अंतिम संस्कार करते हैं। जो लोग फारसी समुदाय से नहीं है, उनको टावर आफ साइलेंस के बारे में बस उतना ही पता है जितना की लिखा गया है। क्योंकि हम में से कोई, मतलब जो लोग पारसी समुदाय से नहीं है वह शायद ही वहां पर गए होंगे
टावर ऑफ़ साइलेंस, पारसी समुदाय के लिए एक अंतिम संस्कार स्थल है। यह एक गोलाकार खोखली इमारत है जिसमें शव को गिद्धों और अन्य शिकारियों के खाने के लिए छोड़ दिया जाता है। पारसी धर्म में, शव को जलाना या दफनाना अशुद्ध माना जाता है। टावर ऑफ़ साइलेंस का निर्माण एक ऐसी जगह पर किया जाता है जो ऊंची और खुली हो।
ऐसा इसलिए है ताकि शव को जल्दी से खाया जा सके और कोई गंदगी न फैले। शव को एक साफ कपड़े में लपेटकर टावर के ऊपर ले जाया जाता है। फिर, इसे एक खुली जगह पर रख दिया जाता है जहां गिद्ध और अन्य शिकारी इसे खा सकते हैं। एक बार जब शव पूरी तरह से खा लिया जाता है, तो केवल हड्डियां बचती हैं। ये हड्डियां टावर के नीचे एक कुएं में डाल दी जाती हैं।
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कोलकाता में बना ईस्ट एशिया का पहला टावर आफ साइलेंस
कोलकाता के ‘बेले घाट पारसी बागान’ में पहला टावर ऑफ साइलेंस साल 1822 में बनना शुरू हुआ था और यह 1828 में बनकर तैयार हो गया। उस समय कोलकाता में पारसी समुदाय के लोग बड़ी संख्या में रहते थे। तब वहाँ के जाने माने कारोबारी नौरोजी सोराबजी उमरी ने पहला टावर ऑफ साइलेंस बनवाया था।
कहा जाता है कि जो कोई भी टावर ऑफ साइलेंस का निर्माण करवाता है, या उसके लिए दान देता है, सबसे पहले उसी का शव वहाँ पहुंचता है।
कोलकाता में भी जिस शख्स ने यहाँ टावर ऑफ साइलेंस बनवाया, सबसे पहले उन्हीं का शव यहाँ लाया गया। उनका एक पालतू कुत्ता था, जो उनसे बहुत प्यार करता था उनकी मौत के बाद उस कुत्ते ने खाना पीना भी छोड़ दिया था
। सात दिन बाद उसकी भी मौत हो गई और उसे टावर ऑफ साइलेंस के बाहर दफनाया गया।
ईस्ट एशिया का पहला टावर ऑफ साइलेंस कोलकाता में ही बना था, जिसे तब कलकत्ता कहते थे। ऐसा दावा किया जाता है कि सिंगापुर से भी शवों को कोलकाता के टावर ऑफ साइलेंस में लाया जाता था। वहाँ रखे शवों को कुछ समय बाद गिद्ध खाने लगते थे, और धीरे धीरे गर्मी बारिश के बीच वो शव पूरी तरह मिट जाते थे।
पारसी समुदाय के लोगों का मानना है की, टावर ऑफ साइलेंस, सिर्फ गिद्ध जैसे पंछियों पर ही निर्भर नहीं रहता। इस तरह के अंतिम संस्कार का प्रमुख उद्देश्य होता है की आप अपने जीवन का आखिरी परोपकारी काम कर सके। सिर्फ गिद्ध और अन्य पंछी ही नहीं बल्कि सूरज की गर्मी भी इसमें काम आती है। पारसी लोग मानते हैं कि शवों को दफनाने से या उन्हें नदी में बहाने से प्रकृति को नुकसान पहुंचता है। इसलिए वो इस सदियों पुरानी प्रथा का पालन करते हैं।
पारसी समुदाय के लोग नहीं चाहते कि कोई भी शव किसी जगह को प्रदुषित करें। शव को नदी में फेंकने से वो पानी को प्रदुषित करता है उसे जलाने से वो हवा को प्रदुषित करता है, इसलिए वे सबको प्रकृति के हवाले कर देते हैं।
टावर ऑफ साइलेंस को इस तरह से बनाया जाता है की हम भारी शवों को सबसे ऊपर, महिलाओं या कम वजन वाले शवों को बीच में और बच्चों के शवों को सबसे नीचे रखते हैं। शवों को गिद्ध वगैरह खा लेते है। जबकि बची हुई हड्डी या कुएं में गिर जाती है। हर साल दो साल में उन्हें इकट्ठा करके उन्हें नष्ट किया जाता है। लेकिन फिर भी इस पूरी प्रक्रिया को पर्यावरण के अनुकूल नहीं कह सकते।
कम हो रही है पारसी समुदाय के लोगों की जनसंख्या
क समय था जब कोलकाता में कई पारसी सी रहते थे, लेकिन अब कोलकाता में सिर्फ 370 पारसी समुदाय के लोग ही रह गए हैं। जिसमें से 220 लोग साठ साल से ज्यादा उम्र के हैं, और इकत्तीस लोग 20 साल से कम उम्र के है। पारसी समुदाय की जनसंख्या में कमी एक चिंताजनक स्थिति है। यह समुदाय भारत के इतिहास और संस्कृति में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाता रहा है।
पारसियों की कम जनसंख्या से उनके धर्म, संस्कृति और परंपराओं को संरक्षित करना मुश्किल हो सकता है। पारसी समुदाय की जनसंख्या को बढ़ाने के लिए कुछ प्रयास किए जा रहे हैं। सरकार ने “जियो पारसी” नामक एक योजना शुरू की है, जिसका उद्देश्य पारसी युवाओं को शादी और बच्चे पैदा करने के लिए प्रोत्साहित करना है।
कुछ पारसी संगठन भी पारसी समुदाय के लोगों को एक साथ लाने और उनकी संस्कृति और परंपराओं को बढ़ावा देने के लिए कार्यक्रम और गतिविधियों का आयोजन कर रहे हैं। हालांकि, इन प्रयासों के बावजूद, पारसी समुदाय की जनसंख्या में कमी जारी रहने की संभावना है। इस वजह से कोलकाता के टावर ऑफ साइलेंस में बहुत ही कम शव पहुंचते हैं।
अब वक्त बदल रहा है गिद्ध भी लगभग विलुप्त होने की कगार पर है इसके साथ ही टावर ऑफ साइलेंस के आसपास लोगों की आबादी बढ़ रही है। लोगों की सोच में भी बदलाव आ रहा है इस वजह से आज के समय में कुछ पारसी लोग शवों को जलाने या दफनाने लगे हैं।
आतिम शब्द
पारसी लोगों की नई पीढ़ी अब इस प्रथा से दूर होती जा रही है, लेकिन पारसी पुजारी अभी भी इस प्रथा में विश्वास रखते हैं। पुजारी का कहना है की, “अगर आप इस धर्म पर विश्वास नहीं रखते हैं तो आप कोई भी फैसला ले सकते हैं। अगर आप भगवान पर विश्वास नहीं करते या किसी प्रथा पर भरोसा नहीं करना चाहते हैं तो ये, आपका अपना फैसला है, लेकिन आमतौर पर अधिकतर पारसी अपनी परंपराओं को मानते हैं और इसी वजह से
आज भी टावर ऑफ साइलेंस का महत्व बना हुआ है।”
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